७ अगस्त, ११५७

 

        श्रीअर्रावंद लिखते हैं : ''अतिमानसका अवतरण उस मनुष्यके लिये, जो उसे ग्रहण करेगा और सत्य-चैतन्यसे भर उठेगा, दिव्य जीवनकी सब संभावनाएं खोल देगा । यह न केवल उस संपूर्ण विशिष्ट अनुभवके क्षेत्रको, जिसे पहलेसे आध्यात्मिक जीवनका गठन करनेवाला माना जाता है, बल्कि उस सबको भी हाथमें लेगा जिसे हम इस समय उस क्षेत्रसे बाहर रखते हैं... ।'' (अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

 तो, तुम क्या जानना चाहते हो? क्या बाहर रखा गया है? हम किसे बाहर रखते है!... यह व्यक्तियोंपर निर्भर है । पर, वास्तवमें तुम पूछ क्या रहे हों?

 

       मैं नहीं देख पाता कि हम किस चीजको अलग रखते हैं ।

 

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ओह! यह समझदारीकी बात है । यहां हम कहते हे कि हम कुछ भी बाहर नही रंखते । ठीक उसी कारणसे । हमने सगी. मानव-प्रब्रूतियोंको- को अपना लिया है, वे चाहे जो मी हों, उनकों मी जिन्हें बिल्कुल आध्यात्मिक नहीं समझा जाता । पर मैं यह अवश्य कहूगी कि उनकी प्रकृति बदलना बहुत कठिन है! फिर भी, हम चोटा कर रहे है, हम इसमें यथासंभव पूरी सद्भावना लगा रहे है ।

 

         यह भी कहा गया है कि अवतरण परिवर्तनको अधिक आसान बना देगा । '

 

 दो बिन्दु है जो- बहुत जोरसे विरोध करते है - एक तो वह सब जो राजनीतिसे संबंध रखता है और दूसरा वह सब जो घनसे संबंध रखता है । ये दो स्थल ऐसे है जिनके बारेमें मनुष्यकी वृत्तिको बदलना सबसे कठिन है ।

 

       सिद्धान्त रूपमें हमने कहा है कि हमारा राजनीतिसे कोई संबंध नही है और यह सच है कि इस समय प्रचलित राजनीतिसे हमारा कोई संबंध

 

      पृथ्वीपर दिव्य जीवनके लिये यह आवश्यक नही कि वह पार्थिव जीवन- त कोई संबंध न रखनेवाःप्रा और उससे बिलकुल अलग-थलग हों. वह मानव और मानव-जीवनका लेकर, जो कुछ रूपांतरित हो सकता है उसे रूपांतरित करेगा, जो आध्यात्मिक बन सकता है उसे आध्यात्मिक बनायेगा शेषपर अपना प्रभाव डालेगा और उसमें एक मौलिक या ऊपर उठानेवाला परिवर्तन लें आयेगा, वैश्व और व्यक्तिके बीच एक गभीर संबंध स्थापित करेगा और आदर्शको आध्यात्मिक सत्यसे, जिसकी वह ज्योतिर्मय छाया है, आक्रांत कर उसे एक महत्तर एवं उच्चतर जीवनमें या उसकी ओर ऊपर उठानेमें सहायता करेगा.. । यह समग्र ही है कि यदि अतिमानस आ जाय और पार्थिव प्रकृतिमें अतिमानसिक सताकी व्यवस्था एक प्र-मगन तत्त्वके रूपमें स्थापित हो जाय, जैसे आजकत्र मन प्रधान तत्व है, पर हों जाय पूर्ण निश्चितताके साथ, तो पार्थिव जीवनपर प्रभुत्व प्राप्त करना ) सब चीजोंको उनके स्तरपर और उनकी स्वाभाविक सीमाओंके अंदर रूपांतरित करनेकी क्षमता प्राप्त करना, जिसके लिये मन अपना अपूर्णतामें सक्षम नही था, अर्थात् मानव-जीवनमें एक बहुत बड़े परिवर्तनका आ जाना अनिवार्यत: सुनिश्चित हों (जायेगा, चाहे वह रूपांतरकी अवस्थातक न भी जा सकें ।

 

( अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

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नहीं है । पर यह भी एकदम स्पष्ट है कि यदि राजनीतिको इसकी सच्ची भावनामें लिया जाये, अर्थात्, इसे मानव-समुदायोंके संगठन, शासनके ब्योरे, सामूहिक जीवनकी व्यवस्था और दूसरे समुदायों (अर्थात्, दूसरे राष्ट्रों व देशों) के साथ संबंधके रूपमें लिया जाये तो अवश्य ही इसे अतिमानसिक रूपांतरके अंतर्गत होना होगा, क्योंकि जबतक राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रोंका पारस्परिक सबंधु वैसा ही बना रहेगा जैसा अब है तबतक पृथ्वीपर अति- मानसिक जीवन बिताना बिलकुल असंभव है । इसलिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि यह परिवर्तित हों, यह बहुत जरूरी है कि इसपर भी ध्यान दिया जाय ।

 

      जहांतक वित्त-व्यवस्थाका प्रश्न है, अर्थात्, विनिमय और उत्पादनका ऐसा साधन प्राप्त करना जो सरल हो -- ''सरल'', कम-से-कम जो सरल होना चाहिये, आदिमकालकी उस विनिमय पद्धतिसे भी अधिक सरल जब एक चीज देकर दूसरी चीज प्राप्त की जाती थी -- ऐसा साधन जो तत्वतः समूची पृथ्वीके लिये हों, सार्वभौम एवं सर्वत्रोपयोगी हो; जीवनको सरल बनानेके लिये यह चीज बहुत अनिवार्य है । परन्तु मानव प्रकृतिके क्षरण जो चीज अब हों रही है वह ठीक इससे उलटी है । स्थिति ऐसी है कि वह प्रायः असह्य-सी हो उठी है । दूसरे देशोंके साथ थोड़ा मी संबंध रखना असंभव-सा हों गया है, और विनिमयका वह साधन जिसे जीवनको सरल बनानेवाला होना चाहिये था इतना जटिल बन गया है कि जल्दी ही हम गतिरोधकी विकट स्थितिमें पहुंच जायेंगे - हम उस अवस्थाके बहुत, बहुत नजदीक है जब हम कुछ मी न कर सकेंगे, सब बातों- मे बंध जायेंगे । यदि कोई दूसरे देशसे जरा-सी चीज मंगाना चाहता है तो उसे ऐसी जटिल आर कष्टकारक प्रक्रियाओंका अनुसरण करना पड़ता है कि वह सब छेड़-छाड़ अपने छोटे-से कोनेमें बैठ रहता है और अपने ही बगीचेमें होनेवात्ठे आन्दुओंपर संतोष कर लेता है और यह जाननेकी जरा भी आशा नही करता कि दूसरे स्थानोंपर क्या चल या हो रहा है ।

 

           हां तो, ये दो स्थल है जहां सबसे अधिक प्रतिरोध है । मानव चेतना- मे यही चीज सबसे अधिक अज्ञान और अचेतनाकी और सामान्य रूपसे कह सकती हू कि दुर्भावनाकी शक्तियोंके अधीन है । यही उन्नतिमें और सत्यकी ओर बढनेते सबसे अधिक रुकावट डालती है । दुर्भाग्यसे प्रत्येक मनुष्यमें भी यही स्थल है जो दुराग्रही होता है और संकीर्ण रूपमें मूर्खता- पूर्ण बना रहता है और जो उसके सामान्य अम्यासकी बात नहीं, उस सबको समझनेसे इंकार करता है । तो, इन चीजोंको लेकर इन्हें, रूपांतरित करने- की इच्छा करना सचमुच एक वीरतापूर्ण कार्य है । हां, हम इसके लिये

 

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भी प्रयत्न कर रहे है और जबतक यह हो नहीं जाता तबतक पृथ्वीकी अवस्थाओंको बदलना असंभव है ।

 

        आर्थिक और सामाजिक अवस्थाओंको बदलना राजनीतिक और वित्तीय अवस्थाओंको बदलनेकी अपेक्षा, (अपेक्षा ही) ज्यादा आसान हैं । आर्थिक और सामाजिक दृष्टिसे कुछ ऐसे सामान्य और सार्वभौम विचार हे जिन्हें मानव-मन समझता है । कुछ ऐसी उदार और विशाल भावना और सामूहिक संगठनकी बातें है जो एकदम निरर्थक और अव्यवहार्य प्रतीत नर्द। होतीं, परन्तु ज्यों ही तुम दूसरी दो बातोंको छेड़ते हों, जो अत्यधिक महत्त्वकी है, विशेषत: राजनीतिका प्रश्न, तो बात बिलकुल और हो जाती है... । कारण, हम ऐसे जीवनकी कल्पना कर सकते है जो वित्तसंबंधी सब जटिलताओंसे मुक्त हो -- यद्यपि वह, बिना शब्दालंकारके, होगी एक विशुद्ध दरिद्रता ही : वित्तीय. संभावनाओं और प्रक्रियाओंमें अतिशय भरपूर संभावनाएं निहित हैं, क्योंकि यदि उनका उचित ढंग और उचित वृत्तिके साथ उपयोग किया जाये तो वे मनुष्योंके समस्त संबंधों और कामोंको बहुत हदतक सरल बना देंगी ओर जीवनकी जटिलताको कम कर देंगी जो किन्हीं दूसरी परिस्थितियोंमें करना बहुत कठिन है । पर मैं नहीं जानती कि किस कारणसे (सिवाय इसके कि बुरे-से-बुरा सामान्यत: अच्छे-से-अच्छेके पहले आता है), सरल रास्ता लेनेके बजाय मनुष्योंने इतना जटिल रास्ता पकड़ा है कि बावजूद वायुयानोंके जो तुम्हें संसारके एक कोनेसे दूसरे कोनेतक कुछ ही दिनोंमें पहुंचा देते है, बावजूद सारे आधुनिक आविप्कारोंके जो जीवनको ''छोटा'' बनानेकी कोशिश करते है, इतना नजदीक कि अब दुनियाभरकी सैरके लिये ८० दिन नहीं लगते, बावजूद इस सबके विदेशी मुद्राके विनिमयकी जटिलता, उदाहरणार्थ, इतनी अधिक है कि बहुत-से लोग बाहर नहीं निकल पाते (मेरा मतलब है अपने देशसे बाहर नहीं निकल पाते), क्योंकि उनके पास दूसरे देशमें जानेक्ए; लिये साधन नहीं है और यदि वें दूसरे देशमें रहनेके लिये अपेक्षित धनकी मांग करते हैं तो उनसे कहा जाता है : ''क्या तुम्हारा वहां जाना बहुत जरूरी है? क्या तुम कुछ प्रतीक्षा नहीं कर सकते, इस समय हमारे लिये प्रबोध करना बहुत कठिन है... ।'' मैं मजाक नहीं कर रही, गंभीरतासे कह रहीं हूं, यही हों रहा है । इसका मतलब हैं कि जिस स्थानपर हमने जन्म लिया है उसीमें हम अधिकायिक बंदी होते जा रहे है, जब कि विज्ञानकी प्रवृत्तियों देशोंके इतना निकट लाती जा रही है कि मनुष्य सारे विश्वका हों सकता है या कम-से-कम सारी पृथ्वीका तो हो ही सकता है ।

 

         अच्छा, ता यह है दशा । पिछले युद्धसे तो यह और भी बिगड़ गयी

 

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है और हर साल बिगड़ती ही जाती है । लोग अपने-आपको एक ऐसी अजीब स्थितिमें पा रहे है कि जिस चीजको उन्होंने इतना जटिल बना डाला है, दुर्भाग्यसे उसे सरल बनानेका कोई साधन उन्हें नही मिल रहा ओर फलस्वरूप पार्थिव वातावरणमें यह विचार विकसित हों रहा है - एक ऐसा विचार जिसे अति मूर्तिपूजा कहा जा सकता है, पर दुर्भाग्यसे यह मूर्खतापूर्ण होनेसे कही अधिक बुरा है, यह विपत्तिपूर्ण है -- यह विचार कि यदि ससारमें एक बहुत बड़ी क्रांति हों जाय तो शायद पीछे स्थिति अधिक अच्छी हो जायगी... । लोग निषेध, असंभवता, प्रत्यादेश, नियम ओर प्रतिक्षणकी जटिलताओंके बीच ऐसे जकड़ गये है कि उनका दम घुटने लगा है और सचमुच उनके अंदर यह विचार आता है कि यदि सब ध्वस्त हा जाय तो शायद चीजों अधिक अच्छी हो जायं!... यह विचार हवा- मे नैण । सभी सरकारोंने अपनी स्थिति ऐसी असंभव बना ली है और वे इतनी अधिक जकड़ दी गयी है कि उन्हें लगता है कि आगे बढ़नेके लिये सब कुछ तोड़ना जरूरी है.. (चुप्पी) । दुर्माग्यसे यह स्थिति संभावनासे कुछ अधिक बन गयी है, एक बहुत गंभीर संकट बन गयी है । और यह भी निश्चित नही है कि जीवन अभी और अधिक असंभव नहीं बनेगा क्योंकि मनुष्य इस दुर्व्यवस्थामेंसे -- जटिलताओंकी इस दुर्व्यवस्थामेंसे, जिसमें मानव- जाति जा फंमी है -- बाहर निकलनेमें अपने-आपको बहुत ही असहाय अनुभव कर रहा है । यह एक छाया है -- पर दुर्भाग्यसे बहुत सक्रिय छाया है -- उस नयी आशाकी छाया. जो मानव चेतनामें उदित हो रही है, वह आशा और आवश्यकता किसी ऐसी चीजके लिये है जो अधिक समस्वर हों, ओर जैसे-जैसे जीवन, जैसा कि यह आजकल बना हुआ है, अधिकाधिक इम समस्वरताका विरोधी होता जाता है वैसे-वैसे वह आवश्यकता भी तीव-सें-तीव्रतर होती जाती है । ये दो विपरीत अवस्थाएं इतने प्रचण्ड रूपमे आमने-सामने मुकाबलेमें खड़ी है कि कि'री भी समय विस्फोट जैसी कोई चीज घट सकती है ।

 

 (मौन)

 

 यह है इस समय संसारकी हालत ओर यह कोई बहुत अच्छी अवस्था नही है । परंतु हुमारे लिये एक संभावना रहती है (मैं पहले भी कई बार तुमसे उसके बारेमें चर्चा कर चुकी हू). चाहे बाहरके संसारमें चीजों पूरी तरह बिगड़ गयी हों और विपत्तिको टाला न जा सकता हों तो भी हमारे लिये एक संभावना है ( मेरा मतलब उन लोंगोंसे है जिनके लिये अति-

 

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मानसिक जीवन कोरा स्वप्न नहीं है; जो इसकी वास्तविकतामें विश्वास रखते है और जिनमें इसे चरितार्थ करनेकी अभीप्सा है, (मेरा मतलब अनि- वार्य रूपसे उन लोगोंसे नहीं है जो यहा पाण्डिचेरी आश्रममें एकत्र हुए है, बल्कि उन लोगोंसे है जो श्रीअरविद-प्रदत शानसे तथा इस ज्ञानद्वारा ही जीवन-यापन करनेके संकल्पसे परस्पर बंधे हुए है), उनके लिये यह संभावना है कि वे अपनी अभीप्सा, संकल्प और प्रयत्नमें तीव्रता भर तथा अपनी शक्तियोंको एकत्रित कर दिव्य चरितार्थताके समयको कम कर दें, उनके पास इस चमत्कारको कार्यान्वित करनेकी संभावना है कि वे (व्यक्ति- गत रूपमें ओर थोडी मात्रामें सामूहिक रूपमें) दिव्य चरितार्थतामें अपेक्षित समय, अवधि एवं देशपर विजय पा लें, प्रयत्नकी तीव्रताके द्वारा समयका' स्थान लें लें, चरितार्थताकी ओर काफी द्रुत गतिसे और काफी दूरतक बढ़ जायं ताकि संसारकी वर्तमान स्थितिके परिणामोंसे अपने-आपको बचामके, यह संभावना है कि वे शक्ति, बल, प्रकाश और सत्यपर अपने-आपको इतना एकाग्र कर दें कि इसी उपलब्धिके द्वारा वे इन परिणामोंसे ऊपर उठ जाय और उनसे अपने-आपको बचा लें ओर यह कि 'प्रकाश', 'सत्य' अनेरा 'पवित्रता' -- आंतरिक रूपांतरसे प्राप्त होनेवाली दिव्य 'पवित्रता' -- द्वारा प्रदान की गयी सुरक्षाका उपभोग करें और इसके परिणामस्वरूप ऐसा'। हों सकता है कि तूफान संसारपरसे ऐसे ही गुजर जाय और निकट भविष्यकी इस महान् आशाको नष्ट न कर पाये और यह कि यह झंझा दिव्य चरितार्थता- के सूत्रपातको अपने साथ बहा न लें जाय!

 

       आरामसे शांतिके साथ सोते पड़े रहने और चीजोंको उनके अपने ही छंदसे चलते रहने देनेकी अपेक्षा यदि तुम अपने संकल्प, उत्साह और अभीप्साका दबाव डालो और प्रकाशमें उभरा आओ तो तुम अपना मीर ऊंचा उठा सकते हों; तुम चेतनाके उच्चतर क्षेत्रमें अपने रहने, श्वास लेने, उन्नत होने और विकसित होनेके लिये ऐसा स्थान प्राप्त कर सकते हों जो गुजरते तूफानसे ऊपर अछूता हो ।

 

       यह संभव है । बहुत थोड़े परिमाणमें यह पहले भी किया जा चुका है जब पिछली लड़ाई चल रही थी और श्रीअरविन्द यहां थे । इसे दुबारा भी किया जा सकता है । परंतु तुममें इसके लिये चाह होनी चाहिये और प्रत्येकको अपना कार्य जितनी सच्चाई और पूर्णतासे वह कर सकता है, करना चाहिये ।

 

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